Friday, January 9, 2015

स्मार्टफोन से सिर्फ उंगली घुमाएं खुल जाएगा सूटकेस का लॉक

कोटा। अमेरिका की एक कंपनी ने एक ऐसा स्मार्ट लॉक बनाया है, जिसकी मदद से आप अपने स्मार्टफोन से सिर्फ स्वाइप करके सूटकेस का लॉक खोल सकते हैं।
सफर में कई लोग अपने सूटकेस की चाबी अक्सर खो देते हैं या उसका पासवर्ड भूल जाते हैं। 'ई-जी टच' नामक यह लॉक उन लोगों के लिए काफी फायदेमंद हो सकता है। इस नई तकनीक में एनएफसी (नियर फील्ड कम्युनिकेशन) की मदद से स्मार्टफोन या टैबलेट या स्मार्टवाच को सूटकेस में लगे लॉक की चाबी या पासवर्ड उपलब्ध हो जाते हैं।एनएफसी कुछ सेंटीमीटर के फासले पर दो डिवाइसों के बीच डेटा ट्रांसफर को संभव बनाता है। लेकिन ब्लूटूथ से अलग इसमें किसी पेयरिंग कोड की जरूरत नहीं है। इस तकनीक के बारे में कंपनी का दावा है कि इसमें चाबी के खोने का कोई गम नहीं रहता और कोई खास नंबर डालने की भी जरूरत नहीं है, न ही किसी कोड को याद रखने की जरूरत है।कंपनी ने अपनी वेबसाइट पर कहा है कि ये दुनिया में अपनी तरह का पहला स्मार्ट लॉक है जो नवीनतम तकनीक से परिपूर्ण है। ये आइडेंटीफिकेशन तकनीक को एक नया स्तर देता है और लॉक सिस्टम से जुड़ी यांत्रिक समस्याओं का समाधान भी करता है।

Tuesday, January 6, 2015

एसएमएस बताएगा डाक पैकेट पहुंचने का वक्त

कोटा। अब पार्सल या रजिस्ट्री गंतव्य पर पहुंचते ही भेजने वाले को संदेश मिल जाएगा। यह संदेश पावती की तरह ही काम करेगा। इस सुविधा को डाक विभाग शुरू करने जा रहा है। इसके लिए डाक विभाग कोई अतिरिक्त शुल्क भी नहीं वसूलेगा।
डाक विभाग निरंतर आधुनिकीकरण की ओर बढ़ रहा है। अभी तक स्पीड पोस्ट, रजिस्ट्री पत्र, पार्सल या मनीआर्डर भेजने वालों को इंटरनेट पर देखना पड़ता था कि उनके द्वारा भेजा पैकेट कहां तक पहुंचा है। पैकेट प्राप्त करने वाले को यदि रसीद की आवश्यकता होती है तो डाक सामग्री के साथ पावती भेजनी पड़ती है। इसमें काफी वक्त लगता है। डाक विभाग ने ऐसे ग्राहकों के लिए नई सुविधा शुरू की है। अब स्पीड पोस्ट, रजिस्ट्री पत्र, पार्सल या मनीआर्डर भेजने वाले व्यक्ति को पावती में अपना मोबाइल नंबर अंकित करना होगा। डाक विभाग संबंधित पार्सल के पहुंचते ही एसएमएस भेजकर सूचना देगा। इस संदेश के साथ कोड नंबर भी होगा। इस संदेश की मान्यता पावती की तरह ही होगी।

Monday, January 5, 2015

अब स्मार्ट होगी ऑनलाइन शॉपिंग

कोटा। नया साल आते ही ऑनलाइन शॉपिंग पर भी नए ऑफर्स की बहार दिखने लगी है, लेकिन ये ऑफर्स ही नहीं हैं जो इस साल आपको लुभाने वाले हैं। इस साल ऑनलाइन शॉपिंग का एक्सपीरिएंस एक नए मुकाम पर पहुंचने वाला है। इस साल कुछ ऐसे बड़े बदलाव होने को हैं जिससे ऑनलाइन शॉपिंग एक्सपीरिएंस बदलने वाला है।
क्लिक ऐंड ऑर्डर
आपको अपने दोस्त की टी-शर्ट बहुत पसंद आई लेकिन वह यह बताने से बच रहा है कि उसने यह कहां से और कितने में ली। कोई बात नहीं बस उसकी फोटो क्लिक करो और ऑनलाइन शॉपिंग साइट पर अपलोड करें। चंद सेकंड में ही साइट इस टीशर्ट और इससे मिलती जुलती टी-शर्ट्स को आपके सामने पेश कर देगी। इतना ही नहीं इनके प्राइस और ऑफर्स भी आपको दिखेंगे। बस क्लिक करो और शॉपिंग करो।
रियल टाइम ट्रैकिंग
आपको अपने पार्सल का इंतजार है और फिलहाल मौजूद ट्रैकिंग ऑप्शन आपको शिपमेंट की सटीक लोकेशन बचाने में नाकाम है। इस साल हर ऑर्डर की रियल टाइम ट्रैकिंग मुमकिन हो सकेगी। मतलब यह कि आपको अपना ऑर्डर किया हुआ सामान मैप पर नजर आएगा। वह कब आपके घर पहुंचेगा इसका पता लगाने के लिए आपको डिलीवरी पर्सन को फोन करके ट्रैक करने की जरूरत खत्म होगी और सीधे मैप पर उसकी लोकेशन दिखने लगेगी।
क्या होगा फायदा
अगर आप घर के बाहर हैं तो ऑर्डर की रियल टाइम लोकेशन देख कर उसे अटेंड करने पहुंच सकते हैं । इससे ऑर्डर के मिसप्लेस होने पर भी उसे ट्रैक करना आसान होगा।



Saturday, January 3, 2015

Friday, January 2, 2015

मिट्‌टी की जांच के बिना यूरिया डाल रहे किसान, नहीं मिलता पूरा फायदा

दिनेश माहेश्वरी 
कोटा। मृदा परीक्षण प्रयोगशाला से जारी आंकड़े साबित करते हैं कि हाड़ौती में अधिकांश किसान बिना मृदा परीक्षण के ही खेती करते हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले नौ महीनों में मात्र 2343 किसानों ही अपने खेत की मिट्टी की जांच कराई है। यह आंकड़े कोटा जिले की पांच पंचायत समितियों के  हैं। हाड़ौती के अन्य जिलों की भी लगभग यही स्थिति है। यहां भी किसान अपने ही हिसाब से खाद-बीज का उपयोग कर रहे हैं। 
कृषि अधिकारियों का कहना है कि हर खेत की मिट्टी अलग-अलग होती है। इसलिए उसमें पाए जाने वाले तत्व भी अलग होते हैं। सभी खेत में एक जैसी मात्रा वाले रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। अगर किसान अपने खेत की मिट्टी की जांच करा कर उसमें खाद डालेंगे तो उनके धन की बचत होने के साथ ही खेत की जमीन की उपजाऊ क्षमता भी बढ़ेगी। उन्होंने बताया कि यूरिया या डीएपी का बेहिसाब उपयोग करने से जमीन भी खराब होती है। 
 हाड़ौती की मिट्टी उपजाऊ : हाड़ौती की मिट्टी वैसे ही उपजाऊ है। यहां दो प्रकार की मिट्टी पाई जाती है। जिसमें से एक है लवणता ली हुई और दूसरी है क्षारक वाली। कृषि अधिकारियों के अनुसार खैराबाद तहसील के आसपास की मिट्टी में क्षारक की अधिकता पाई जाती है। ऐसी मिट्टी को बंजर नहीं छोड़ कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। वह भी गोबर की खाद से। किसानों को जैविक खाद का उपयोग करना लाभदायक होगा।
 30 प्रतिशत यूरिया ही काम आता है: इनके अनुसार खेत में डाला गया यूरिया मात्र 30 प्रतिशत ही काम आता है। बाकी का 70 प्रतिशत हवा में उड़ जाता है या पानी में बह जाता है। ऐसा नहीं है कि ज्यादा यूरिया या डीएपी डालने ज्यादा अच्छी फसल होगी। किसी जमीन में यूरिया की जरूरत ही नहीं तो यूरिया क्यों डाला जाए। हर फसल के लिए अलग जरूरत होती है। 
पांच रुपए में होती है जांच: कृषि अनुसंधान अधिकारी व मृदा परीक्षण लेब इंचार्ज वीबी   सिंह राजावत ने बताया कि मृदा परीक्षण का शुल्क सरकारी लेबोरेट्री में मात्र पांच रुपए है। कोई भी किसान अपने खेत में जिसमें फसल बोना चाहता है। उसकी जांच करा सकता है। वह खुद नहीं आए तो अपने ग्राम सेवक के हाथ मिट्टी की जांच के लिए नमूना भेज सकता है।

थाली से उड़नछू होती दाल

कोटा।  खाने की थाली से उड़नछू होती दाल ने सरकार की चिंताएं बढ़ा दी हैं। प्रोत्साहन के अभाव में किसानों ने दलहन खेती से मुंह मोड़ लिया है। इसीलिए न दलहन खेती का न रकबा बढ़ा और न ही उत्पादकता। पिछले पांच दशक में दालों की प्रति व्यक्ति खपत 65 ग्राम रोजाना से घटकर 31 ग्राम रह गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में प्रति व्यक्ति रोजाना 80 ग्राम दाल चाहिए। कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने दलहन खेती की इस स्थिति पर गंभीर चिंता जताते हुए कारगर पहल का एलान किया है।
विलायती दालों पर बढ़ती निर्भरता को घटाने और दाल आपूर्ति बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार ने पुख्ता इंतजाम करने की घोषणा की है। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) का 50 फीसद धन अब दलहन फसलों की उत्पादकता व रकबा बढ़ाने पर खर्च किया जाएगा। दलहन खेती को बढ़ावा देने वाली योजना में अब देश के सभी जिलों को रखा गया है। साथ ही हिमालयी राज्यों समेत समूचे पूर्वोत्तर को इसमें शामिल कर लिया गया है।
दलहन फसलों की खेती का रकबा और उसकी उत्पादकता में पिछले पांच दशक के दौरान कमोबेश कोई अंतर नहीं आया है। इसके उलट बढ़ती जनसंख्या के चलते दाल की मांग में लगातार इजाफा हुआ है। दालें प्रोटीन का प्रमुख सस्ता स्त्रोत होने के नाते गरीबों के लिए बहुत सहज हैं। लेकिन दाल की मांग व आपूर्ति के बढ़ते अंतर के चलते कीमतें सातवें आसमान पर रहती हैं। घरेलू मांग को पूरा करने के लिए हर साल 35 से 40 लाख टन विलायती दालें आयात की जाती हैं।
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक आजादी के बाद से दालों की पैदावार 1.30 से 1.50 करोड़ टन के आसपास ही सिमटी रही। हरित क्रांति के दौर में दलहन खेती को और झटका लगा। गेहूं व चावल की खेती को प्रोत्साहित करने के चक्कर में किसानों ने भी दलहन की खेती से मुंह मोड़ लिया। इसीलिए दलहन की कृषि कम उपजाऊ और असिंचित भूमि पर ही होने लगी है। भूमि के सिंचित होते ही दालों की खेती बंद हो जाती है।
दरअसल, दलहन खेती किसानों के लिए लाभ का सौदा नहीं गई है। तकनीकी, जागरूकता और प्रोत्साहन के अभाव में घरेलू स्तर पर दलहन की उत्पादकता 635 किलो प्रति हेक्टेयर है। इसके मुकाबले कनाडा और अमेरिका में दालों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1,900 किलो प्रति हेक्टेयर है।