Friday, January 2, 2015

थाली से उड़नछू होती दाल

कोटा।  खाने की थाली से उड़नछू होती दाल ने सरकार की चिंताएं बढ़ा दी हैं। प्रोत्साहन के अभाव में किसानों ने दलहन खेती से मुंह मोड़ लिया है। इसीलिए न दलहन खेती का न रकबा बढ़ा और न ही उत्पादकता। पिछले पांच दशक में दालों की प्रति व्यक्ति खपत 65 ग्राम रोजाना से घटकर 31 ग्राम रह गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में प्रति व्यक्ति रोजाना 80 ग्राम दाल चाहिए। कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने दलहन खेती की इस स्थिति पर गंभीर चिंता जताते हुए कारगर पहल का एलान किया है।
विलायती दालों पर बढ़ती निर्भरता को घटाने और दाल आपूर्ति बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार ने पुख्ता इंतजाम करने की घोषणा की है। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) का 50 फीसद धन अब दलहन फसलों की उत्पादकता व रकबा बढ़ाने पर खर्च किया जाएगा। दलहन खेती को बढ़ावा देने वाली योजना में अब देश के सभी जिलों को रखा गया है। साथ ही हिमालयी राज्यों समेत समूचे पूर्वोत्तर को इसमें शामिल कर लिया गया है।
दलहन फसलों की खेती का रकबा और उसकी उत्पादकता में पिछले पांच दशक के दौरान कमोबेश कोई अंतर नहीं आया है। इसके उलट बढ़ती जनसंख्या के चलते दाल की मांग में लगातार इजाफा हुआ है। दालें प्रोटीन का प्रमुख सस्ता स्त्रोत होने के नाते गरीबों के लिए बहुत सहज हैं। लेकिन दाल की मांग व आपूर्ति के बढ़ते अंतर के चलते कीमतें सातवें आसमान पर रहती हैं। घरेलू मांग को पूरा करने के लिए हर साल 35 से 40 लाख टन विलायती दालें आयात की जाती हैं।
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक आजादी के बाद से दालों की पैदावार 1.30 से 1.50 करोड़ टन के आसपास ही सिमटी रही। हरित क्रांति के दौर में दलहन खेती को और झटका लगा। गेहूं व चावल की खेती को प्रोत्साहित करने के चक्कर में किसानों ने भी दलहन की खेती से मुंह मोड़ लिया। इसीलिए दलहन की कृषि कम उपजाऊ और असिंचित भूमि पर ही होने लगी है। भूमि के सिंचित होते ही दालों की खेती बंद हो जाती है।
दरअसल, दलहन खेती किसानों के लिए लाभ का सौदा नहीं गई है। तकनीकी, जागरूकता और प्रोत्साहन के अभाव में घरेलू स्तर पर दलहन की उत्पादकता 635 किलो प्रति हेक्टेयर है। इसके मुकाबले कनाडा और अमेरिका में दालों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1,900 किलो प्रति हेक्टेयर है।

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