कोटा। उड़ीसा के पिछड़े जिले कालाहांडी में पिछले दिनों (25 अगस्त को) एक आदिवासी व्यक्ति अमंग देई को अपनी पत्नी के शव को अपने कंधे पर लेकर करीब 10 किलोमीटर तक चलना पड़ा। उसे अस्पताल से शव को घर तक ले जाने के लिए कोई वाहन नहीं मिल सका था। उसकी 42 वर्षीय पत्नी की भवानीपटना में जिला मुख्यालय अस्पताल में टीबी से मौत हो गई थी। उस घटना ने शहर की एक कवयित्री संगीता कौशिक द्विवेदी के हृदय को झकझोर दिया। उन्होंने अपनी कुछ पंक्तियों के माध्यम से उस मांझी की वेदना को इस प्रकार बयां किया.........
मांझी कराता है नैया पार
दाना तो होता है समझदार
एक नादाँ ऐसा था माँझी
जिसकी वेदना हम सब की थी सांझी
दाना तो होता है समझदार
एक नादाँ ऐसा था माँझी
जिसकी वेदना हम सब की थी सांझी
अंतिम थी यात्रा उसके किसी अपने की
मिली उसको ज़रा न मदद
किसी पराये या अपने की
मिली उसको ज़रा न मदद
किसी पराये या अपने की
अकेला काँधा था उस कहार का
बोझ मन पर पड़ा, पीड़ा की मार का
प्रहार था उस पर देश की व्यव्स्थाओं का
चंद खनकते सिक्कों और हरे कागज़ों के व्योपार का
बोझ मन पर पड़ा, पीड़ा की मार का
प्रहार था उस पर देश की व्यव्स्थाओं का
चंद खनकते सिक्कों और हरे कागज़ों के व्योपार का
ग़रीबी, लाचारी ने फिर उसे औंधे मुँह पटका
पैसों के अभाव में उसकी मृत-बीवी का दाह-संस्कार रहा अटका
पैसों के अभाव में उसकी मृत-बीवी का दाह-संस्कार रहा अटका
उस दिन मांझी को गर तीन काँधे और मिल जाते
मानवता के चारों धाम
वहीं हो जाते
मानवता के चारों धाम
वहीं हो जाते
बारह कोस तक , मृत शरीर के तले एक मृत मन चला था
न जाने कौन किसको ढो रहा था, न जाने कौन किसको ढो रहा था.....
न जाने कौन किसको ढो रहा था, न जाने कौन किसको ढो रहा था.....
संगीता कौशिक द्विवेदी
0 comments:
Post a Comment