
मांझी कराता है नैया पार
दाना तो होता है समझदार
एक नादाँ ऐसा था माँझी
जिसकी वेदना हम सब की थी सांझी
दाना तो होता है समझदार
एक नादाँ ऐसा था माँझी
जिसकी वेदना हम सब की थी सांझी
अंतिम थी यात्रा उसके किसी अपने की
मिली उसको ज़रा न मदद
किसी पराये या अपने की
मिली उसको ज़रा न मदद
किसी पराये या अपने की
अकेला काँधा था उस कहार का
बोझ मन पर पड़ा, पीड़ा की मार का
प्रहार था उस पर देश की व्यव्स्थाओं का
चंद खनकते सिक्कों और हरे कागज़ों के व्योपार का
बोझ मन पर पड़ा, पीड़ा की मार का
प्रहार था उस पर देश की व्यव्स्थाओं का
चंद खनकते सिक्कों और हरे कागज़ों के व्योपार का
ग़रीबी, लाचारी ने फिर उसे औंधे मुँह पटका
पैसों के अभाव में उसकी मृत-बीवी का दाह-संस्कार रहा अटका
पैसों के अभाव में उसकी मृत-बीवी का दाह-संस्कार रहा अटका
उस दिन मांझी को गर तीन काँधे और मिल जाते
मानवता के चारों धाम
वहीं हो जाते
मानवता के चारों धाम
वहीं हो जाते
बारह कोस तक , मृत शरीर के तले एक मृत मन चला था
न जाने कौन किसको ढो रहा था, न जाने कौन किसको ढो रहा था.....
न जाने कौन किसको ढो रहा था, न जाने कौन किसको ढो रहा था.....
संगीता कौशिक द्विवेदी
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