सुप्रीम कोर्ट में 7 फरवरी और फिर 10 अप्रैल 2014 के बाद पत्रकारिता जगत में कोई हलचल नहीं मची। मजीठिया वेतन बोर्ड के खिलाफ मुकदमा जिताने का दावा करने वाली देश की बड़ी-बड़ी यूनियनों ने हाथ खड़े कर दिए। ये वही संस्थााएं थीं जो सुप्रीम कोर्ट में मालिकों को नाकों चने चबवाने का दावा कर रही थीं लेकिन समझ में नहीं आया कि इतना सब करने वाली ये यूनियनें जब मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफारिशों को लागू कराने की बात हुई तो उन्हें सांप क्यों सूंघ गया। न पीटीआई, न यूएनआई ( खैर इनकी अब हालत पहले जैसी नहीं रही) की यूनियनें, न डीयूजे और न ही आई एफडब्यूएनआईजे ने सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के लिए मालिकों को कटघरे में खड़ा किया। आखिर उनकी चुप्पी का राज क्या था। जीत का दावा करने वालों को पता होना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में जीतने के बाद असल काम तो इसे लागू कराना है जहां उनकी जरूरत थी।
10 अप्रैल और और मई के पहले हफ्ते तक भी इन यूनियनों को कोई होश नहीं था। लेकिन जब दैनिक जागरण, भास्कर, प्रभात खबर, डीएनए, राजस्थान पत्रिका, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, पंजाब केसरी के प्रबंधनों के खिलाफ आवाज उठने लगी। पूरे देश में एक माहौल बना। सोशल मीडिया पर बताया गया कि सभी साथियों को इस बार क्यों मालिकों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए तो लगभग पूर देश के पीडि़त साथी, इस बात से सहमत थे कि उनके चुप बैठने से काम नहीं चलेगा। उन्हें कुछ करना पड़ेगा और उसकी शुरुआत देश के सबसे अधिक लाभ कमाने वाले पर घटिया प्रबंधन वाले अखबार दैनिक जागरण के साथियों ने की। सबको आश्चर्य हुआ कि इतना बड़ा फैसला पहली बार देश में दैनिक जागरण के साथियों ने लिया। हम में से किसी को यह उम्मीद नहीं थी। लेकिन हकीकत यही है।
माहौल बना और प्रबंधन को नोटिस दिया गया। इसके बाद इसका पूरे जोर-शोर से प्रचार किया गया और नतीजा बेहतर निकला जब तक दैनिक जागरण के साथी मामला दर्ज करवाते, एक और चमत्कार हो चुका था। दैनिक भास्क्र के साथी अपने मालिक रमेशचंद्र अग्रवाल को सुप्रीम कोर्ट में घसीटने का बीड़ा उठा चुके थे। जून और जुलाई आते-आते मालिकों के खिलाफ माहौल गर्म हो चुका था और सितंबर आते-आते इंडियन एक्सप्रेस के साथियों के मामले में सुनवाई शुरू हो गई। इस समय तक सुप्रीम कोर्ट में छह मामले दर्ज कराए जा चुके थे और साथियों को मना करने के बाद भी देश के लगभग हर शहर में अन्याय के खिलाफ लड़ने का मन बना चुके थे। हालांकि मामला सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में ही सुना जाएगा और सभी साथियों से फिर निवेदन है कि वे अपनी ताकत न गंवाएं और लड़ाई सु्प्रीम कोर्ट में लड़ने के लिए ताकत संजोकर रखें। लेकिन उत्साह और उबाल इतना कि शिमला, अहमदाबाद, पटना, मुंबई, पुणे, कानपुर, रांची, चंडीगढ़, लुधियाना, हिसार, पानीपत, जम्मू, जयपुर ,लखनऊ और इंदौर जैसे शहरों के साथी हिम्म़त के साथ आगे आए। कई लोग हाईकोर्ट गए तो कई लेबर कोर्ट। मालिकों को जवाब देना पड़ा। लेकिन इतने दिनों तक किसी यूनियन की नींद नहीं खुली।
10 अप्रैल और और मई के पहले हफ्ते तक भी इन यूनियनों को कोई होश नहीं था। लेकिन जब दैनिक जागरण, भास्कर, प्रभात खबर, डीएनए, राजस्थान पत्रिका, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, पंजाब केसरी के प्रबंधनों के खिलाफ आवाज उठने लगी। पूरे देश में एक माहौल बना। सोशल मीडिया पर बताया गया कि सभी साथियों को इस बार क्यों मालिकों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए तो लगभग पूर देश के पीडि़त साथी, इस बात से सहमत थे कि उनके चुप बैठने से काम नहीं चलेगा। उन्हें कुछ करना पड़ेगा और उसकी शुरुआत देश के सबसे अधिक लाभ कमाने वाले पर घटिया प्रबंधन वाले अखबार दैनिक जागरण के साथियों ने की। सबको आश्चर्य हुआ कि इतना बड़ा फैसला पहली बार देश में दैनिक जागरण के साथियों ने लिया। हम में से किसी को यह उम्मीद नहीं थी। लेकिन हकीकत यही है।
माहौल बना और प्रबंधन को नोटिस दिया गया। इसके बाद इसका पूरे जोर-शोर से प्रचार किया गया और नतीजा बेहतर निकला जब तक दैनिक जागरण के साथी मामला दर्ज करवाते, एक और चमत्कार हो चुका था। दैनिक भास्क्र के साथी अपने मालिक रमेशचंद्र अग्रवाल को सुप्रीम कोर्ट में घसीटने का बीड़ा उठा चुके थे। जून और जुलाई आते-आते मालिकों के खिलाफ माहौल गर्म हो चुका था और सितंबर आते-आते इंडियन एक्सप्रेस के साथियों के मामले में सुनवाई शुरू हो गई। इस समय तक सुप्रीम कोर्ट में छह मामले दर्ज कराए जा चुके थे और साथियों को मना करने के बाद भी देश के लगभग हर शहर में अन्याय के खिलाफ लड़ने का मन बना चुके थे। हालांकि मामला सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में ही सुना जाएगा और सभी साथियों से फिर निवेदन है कि वे अपनी ताकत न गंवाएं और लड़ाई सु्प्रीम कोर्ट में लड़ने के लिए ताकत संजोकर रखें। लेकिन उत्साह और उबाल इतना कि शिमला, अहमदाबाद, पटना, मुंबई, पुणे, कानपुर, रांची, चंडीगढ़, लुधियाना, हिसार, पानीपत, जम्मू, जयपुर ,लखनऊ और इंदौर जैसे शहरों के साथी हिम्म़त के साथ आगे आए। कई लोग हाईकोर्ट गए तो कई लेबर कोर्ट। मालिकों को जवाब देना पड़ा। लेकिन इतने दिनों तक किसी यूनियन की नींद नहीं खुली।
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