Friday, October 9, 2015

ज़रूरत रोटी की है मगर खाने को केक

ज़रूरत रोटी की है मगर खाने को केक दिया जा रहा है. आप दर्शकों से उन पत्रकारों का दर्द साझा करना चाहता हूं जो अपना दर्द कहने के लायक नहीं है. हिंदी के पत्रकार बंधु इसे जरूर पढ़े
Rakesh Praveer के फेसबुक वाल से। ज़रूरत रोटी की है मगर खाने को केक दिया जा रहा है. आप दर्शकों से उन पत्रकारों का दर्द साझा करना चाहता हूं जो अपना दर्द कहने के लायक नहीं है. हिंदी के तमाम और अंग्रेजी के भी शायद बड़े अखबारों में भी ज्यादातर पत्रकार बीस बीस साल के अनुभव के बाद भी बीस हजार या उससे भी कम सेलरी पर काम कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि मजीठिया वेतनबोर्ड लागू किया जाए मगर किसी अखबार ने मजीठिया लागू नहीं किया. लागू होता तो बीस हजार रुपये पाने वाले वरिष्ठ पत्रकार को साठ से अस्सी हजार रुपये की सेलरी मिल सकती थी. अदालत की खुलेआम अवमानना हो रही है मगर सब चुप हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मजीठिया बोर्ड की सिफारिशें लागू करवाने का वादा किया था लेकिन पांच सौ करोड़ की विज्ञापन बजट की ताकत के बाद फेल हो गए. वही नहीं, तमाम मुख्यमंत्री और पार्टियां फेल हो गई हैं. हो सकता है लेकिन जिस कारण से बताने का मौका मिला है उसका पहले शुक्रिया अदा करना चाहता हूं. बीजेपी के विजन डाक्युमेंट में कहा गया है कि पत्रकारों के लिए सामूहिक बीमा योजना तथा मेडिकेयर की सुविधा दी जाएगी. राज्य सरकार मान्यता प्राप्त पत्रकारों को लैपटॉप देगी. राजस्थान में मुख्यमंत्री रहते हुए अशोक गहलोत 1500 पत्रकारों को लैपटाप दे चुके हैं. जयपुर अजमेर में कई सौ पत्रकारों को सस्ती दरों पर जमीन देने की सूची निकली थी. मामला कोर्ट में है. 
पत्रकार भी वेतन की जगह क्या क्या ले लेते हैं. आप जिस मीडिया को दिनरात गरियाते हैं, उसकी यह हकीकत है. अपनी सेलरी के सवाल से समझौता करते हुए पत्रकार आपके लिए तटस्थता और नैतिकता का बोझ ढो रहा है. बोझ ढोेते ढोते बहुत अच्छा पत्रकार भी बीस साल में बीस हजार की तनख्वाह भी नहीं पा पाता है. शुक्रिया बीजेपी का उसने अपने विजन डाक्युमेंट में लैपटॉप देने का वादा किया है, मजीठिया बोर्ड लागू करने का वादा नहीं किया है.
यह हिस्सा कल रवीश के प्राइम टाइम का इंट्रो है. आज दैनिक जागरण के पत्रकार जंतर मंतर पर धरना दे रहे हैं. वे हड़ताल पर चले गए हैं. सरकार द्वारा मजीठिया वेजबोर्ड लागू करने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अखबार के मालिकों ने इसे लागू नहीं किया. इसे चुनौती देने के लिए सभी अखबार सुप्रीम कोर्ट के वकीलों को करोड़ों रुपये दे चुके हैं. हर अखबार के प्रबंधन ने अपने पत्रकारों से एक पेपर पर साइन कराया जिसपर यह लिखा गया कि 'मुझे जितनी तनख्वाह मिलती है, उतने में खुश हूं. मुझे मजीठिया वेतनबोर्ड नहीं चाहिए.' यह अखबार जो रोज दुनिया को ज्ञान देते हैं, कहां कहां गलत हो रहा है, उसकी खबर छापते हैं, वे अखबार अपने कर्मचारियों को भरपूर शोषण करते हैं और कर्मचारी परिवार चलाने की मजबूरी में सब सहते जाते हैं. 
यह सोचने की बात है कि इस देश में सरकार और सुप्रीम कोर्ट इन छोटे उद्योगपतियों के सामने इस कदर लाचार हैं तो बड़े उद्योगपतियों का क्या हाल होगा? इस देश में जनता का शासन नहीं है, यहां कंपनी राज चलता है. सरकार और अदालत उनके पीछे चलती हैं.

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