Wednesday, July 6, 2016

मीडिया कर्मियों को नहीं मिलता वेतन आयोग का लाभ

सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिये कैबिनेट की मंज़ूरी मिलते ही केन्द्रीय कर्मचारियों की तन्ख्वाह में बढ़ोत्तरी तो होगी ही साथ ही इसका असर राज्यों के कर्मचारियों की सैलरी पर भी पड़ेगा । आमतौर पर सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट पर अमल से कर्मचारियों के अलावा अन्य लोगों में भी धुंधली सी ही सही उम्मीद की एक किरण तो नज़र आ रही है कि शायद उनकी तन्ख्वाह भी ज्यादा हो जाये । हालांकि ये उम्मीद परवान चढ़ेगी भी या नहीं कोई नही जानता । आज यहां पर मैं किसानों, मज़दूरों, प्राईवेट नौकरी करने वाले या ठेके पर काम करने वाले लोगों की बात नही करुगां । मैं बात कर रहा हूँ एक ऐसे जागरुक वर्ग की जो ये सारी खबरें आप तक पहुंचाते हैं यानी मीडियाकर्मियों की । देश - दुनिया की तमात खबरें आप तक पहुंचाने वाले, लोगों के भिन्न भिन्न आन्दोलनों को कवर करके उनकी माँगों पर सरकार के ऊपर दबाव डालने वाले, समाज की हर अच्छी बुरी खबर से आपको रुबरु करवाने वाले ये मीडियाकर्मी ही हैं चाहे वो प्रिन्ट के हों या इलैक्ट्रानिक मीडिया के..... सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर उनके दिल में क्या हलचल है क्या किसी ने समझने की कोशिश की है। 
मीडिया के लोगों की पूरी जमात ये जरुर सोच रही होगी कि उनके हालात पर कब कोई रिपोर्ट देगा । 1886 में अमेरिका के शिकागों में मजदूरों के व्यापक संघर्ष के बाद काम करने के घंटे तय होने के सवा सौ सालों के बाद भी क्या मीडिया के लोगों के लिये काम के घंटे तय हो पाये हैं । पूरी दुनिया और जनता की समस्याओं को सामने रखने वाला वर्ग खुद अपनी परेशानियों पर खामोश क्यूँ है । लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ यानी प्रेस की आजादी के बारे में बड़ी बड़ी बातें करने वाले क्या कभी पत्रकारों की पीड़ा से रुबरु होगें । आज के समय में रिक्शा वाले, तांगें वाले, किसान, मजदूर किसी भी तरह एक हो सकते हैं, किसी भी बैनर के तहत अपनी मांग रख सकते हैं लेकिन हमारे सम्मानित पत्रकार अन्दर ही अन्दर घुट जायेगें, बीमार पड़ जायेगें, सहते रहेगें लेकिन अपना दुखड़ा किसी के सामने नही रखेगें आखिर सम्मान जो कम हो जायेगा । वैसे भी अभी तो किसी दूसरे का नम्बर है हमारा नम्बर जब आयेगा तब देखा जायेगा। 
अगर इस पेशे को सबसे ज्यादा असंगठित क्षेत्र कहा जाये तो अतिश्योक्ति नही होगी। मीडिया के मालिकों की जो भी विचारधारा हो, सत्ता के साथ कैसा भी गठजोड़ हो । अपने कर्मचारियों के हितों की शायद ही उन्हे कोई चिन्ता होती है । मुनाफा कमाने की होड़ में, आपसी गलाकाट प्रतियोगिता के इस दौर में मालिकों का रुझान कर्मचारियों की परेशानियों पर कम अपने हितों पर ज्यादा होता है । ऐसे प्रतिकूल माहौल में हर कर्मचारी का पूरा ध्यान अपनी नौकरी बचाने में लगा रहता है क्योकि संगठन की तरफ से कब बाँय बाँय बोल दिया जाये कहा नही जा सकता । सैलरी बढ़ना किसे अच्छा नही लगता । सभी की अपनी फैमली है, सामाजिक जिम्मेदारी है और आज के मंहगाई के दौर में जीवन यापन करना वैसे भी आसान नहीं हैं, आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया वाली कहावत यहां पर फिट बैठती है और ऊपर से मीडिया के लोगों को कोई सामाजिक सुरक्षा का लाभ भी तो नही है। कुछ बड़े मठाधीशों को छोड़ दिया जाये तो कमोबेश अधिकतर लोगों की स्थिति बहुत अच्छी नही कही जा सकती । आखिर कब तक अन्याय का ये सिलसिला चलता रहेगा।
अब तो हालात ये है कि मीडिया ग्रुप भी पूरी तरह बंट चुके हैं । ये बात तो सही थी कि मीडिया ग्रुप अपने हितों के चलते सत्ता किसी की भी हो उसके करीब ही रहतें हैं लेकिन अब तो हालात ज्यादा ही खराब हैं । कुछ मीडिया संगठनों ने तो खुलेआम सत्ता की दलाली शुरु कर दी है । संपादकीय पालिसी कुछ भी हो सकती है । विचारधारा जो भी हो लेकिन जनता के प्रति सच दिखाने का नैतिक साहस भी कुछ लोग दलाली के चलते बेच चुके हैं । ऐसे निर्दयी संगठनों से कर्मचारी क्या उम्मीद कर सकते हैं । कर्मचारियों की ये हालत आमतौर पर सभी जगह है । कर्मचारियों के लिये अपने संगठन की नीतियों का अनुसरण करना जरुरी है लेकिन अपने बच्चों की अच्छी पढ़ाई की व्यवस्था करना, अपने परिवार को एक बेहतर जीवन प्रदान करना और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को सही से पूरा करना शायद मीडिया कर्मियों की हाथ की रेखाओं में शामिल नही है । तभी तो अपनी पूरी ड्यूटी करने के बाद भी साल दर साल बिना किसी मानसिक प्रताड़ना के तन्ख्वाह बढ़ने का सपना एक सपना ही बना हुआ है । सातवें वेतन आयोग की सिफारिश से मीडियाकर्मी कब तक खुश रहते हैं ये देखना होगा ।

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