सोलह मई का दिन भारत के इतिहास में एक ऐसे दिन की तरह याद रखा जाए, जब आखिरकार इस देश से अंग्रेजों की विदाई हुई। चुनावों में नरेंद्र मोदी की जीत ने उस लंबे दौर का अंत कर दिया है, जिसमें सत्ता के ढांचे ब्रिटिश राज से बहुत अलग नहीं हुआ करते थे। अनेक मायनों में कांग्रेस पार्टी के राज में भारत में ब्रिटिश राज ही बदस्तूर जारी था। 'आधी रात की संतानें" अब उम्र की सातवीं दहाई में होंगी, लेकिन वास्तव में भारत में यह बदलाव आजादी के समय जन्मी पीढ़ी के परिदृश्य से हट जाने भर से ही नहीं आया है।
जिस भारत में इस पीढ़ी ने अपनी पूरी उम्र बिता दी, वह एक बंधक और बेड़ियों में जकड़ा हुआ भारत था। उस पर अंग्रेजी बोलने वाले चंद गिने-चुने कुलीनों का राज था, जिनका रवैया देश की आम जनता के प्रति कभी हितैषी तो कभी शोषक का भले ही रहता आया हो, लेकिन उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी करने का मौका कभी नहीं दिया गया था। लोकतांत्रिक मताधिकार ने भारतीयों को वोट देने की ताकत तो दे दी, लेकिन वे अपनी आवाज को नहीं खोज पाए थे। अलबत्ता, कभी-कभी उनकी आवाज सुनाई जरूर पड़ती थी, जैसा कि वर्ष 1977 में हुआ, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए अलोकप्रिय आपातकाल के बाद चुनाव हुए और भारतीयों ने अपने देश के राजनीतिक परिदृश्य को बदल डालने के लिए निर्णायक जनादेश दिया। लेकिन आजाद भारत के इतिहास में ऐसे क्षण ज्यादा नहीं थे।
अब एक बार फिर वह आवाज सुनाई दी है। इस आवाज ने नरेंद्र मोदी के रूप में अपना नया नेता चुन लिया है। मोदी नीची जाति से वास्ता रखते हैं। वे बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाते। उनका उन सेकुलर और समाजवादी परंपराओं से भी कोई सरोकार नहीं है, जो कांग्रेस की बुनियाद में थीं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस आवाज ने एक नए भारत का जयघोष कर दिया है। पुराने भारत में जब कुलीन वर्ग का मन करता था या जब उसे वोट हासिल करने की, या कहें वोट खरीदने की जरूरत महसूस होती थी, तभी वह गरीबों की मदद करता था। मध्यवर्ग की अनदेखी की जाती थी और कभी-कभी तो अवमानना भी। लेकिन नए भारत की खैरातों में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है और अपमानित होने का भी उसे कोई शौक नहीं है।
जिस भारत में इस पीढ़ी ने अपनी पूरी उम्र बिता दी, वह एक बंधक और बेड़ियों में जकड़ा हुआ भारत था। उस पर अंग्रेजी बोलने वाले चंद गिने-चुने कुलीनों का राज था, जिनका रवैया देश की आम जनता के प्रति कभी हितैषी तो कभी शोषक का भले ही रहता आया हो, लेकिन उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी करने का मौका कभी नहीं दिया गया था। लोकतांत्रिक मताधिकार ने भारतीयों को वोट देने की ताकत तो दे दी, लेकिन वे अपनी आवाज को नहीं खोज पाए थे। अलबत्ता, कभी-कभी उनकी आवाज सुनाई जरूर पड़ती थी, जैसा कि वर्ष 1977 में हुआ, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए अलोकप्रिय आपातकाल के बाद चुनाव हुए और भारतीयों ने अपने देश के राजनीतिक परिदृश्य को बदल डालने के लिए निर्णायक जनादेश दिया। लेकिन आजाद भारत के इतिहास में ऐसे क्षण ज्यादा नहीं थे।
अब एक बार फिर वह आवाज सुनाई दी है। इस आवाज ने नरेंद्र मोदी के रूप में अपना नया नेता चुन लिया है। मोदी नीची जाति से वास्ता रखते हैं। वे बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाते। उनका उन सेकुलर और समाजवादी परंपराओं से भी कोई सरोकार नहीं है, जो कांग्रेस की बुनियाद में थीं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस आवाज ने एक नए भारत का जयघोष कर दिया है। पुराने भारत में जब कुलीन वर्ग का मन करता था या जब उसे वोट हासिल करने की, या कहें वोट खरीदने की जरूरत महसूस होती थी, तभी वह गरीबों की मदद करता था। मध्यवर्ग की अनदेखी की जाती थी और कभी-कभी तो अवमानना भी। लेकिन नए भारत की खैरातों में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है और अपमानित होने का भी उसे कोई शौक नहीं है।
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